सन 1921 का साल खद्दर, चरखा, गाँधी टोपी और अंग्रेज़ सरकार से सीधे टकराव का साल था.
नवंबर आते-आते नेहरू के बनाए वॉलंटियर दल ने एक के बाद एक कई शहरों में अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ हड़ताल आयोजित की थी.
22 नवंबर, 1921 को वॉलंटियर दल को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया था और 6 दिसंबर को नेहरू और उनके पिता मोतीलाल को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था.
एम जे अकबर नेहरू की जीवनी 'नेहरू द मेकिंग ऑफ़ इंडिया' में लिखते हैं, "मोतीलाल नेहरू आनंद भवन में अपने दफ़्तर में कुछ कागज़ात पर नज़र दौड़ा रहे थे तभी एक नौकर ने आकर उन्हें बताया कि पुलिस आनंद भवन के गेट पर पहुंच चुकी है. पीछे आ रहे पुलिस अफ़सर ने बहुत तहज़ीब से मोतीलाल नेहरू को आदाब-अर्ज़ कहा और उन्हें भवन की तलाशी लेने का सर्च वॉरंट दिखाया."
"मोतीलाल ने जवाब दिया कि वो अपने घर की तलाशी देने के लिए तो तैयार हैं लेकिन आपको ये तलाशी लेने में कम से कम छह महीने लग जाएंगे. पुलिस अफ़सर की समझ में नहीं आया कि वो मोतीलाल नेहरू के इस व्यंग्य का कैसे जवाब दें लेकिन वो किसी तरह मोतीलाल नेहरू को ये बताने में कामयाब हो गए कि उनके पास पिता और और पुत्र दोनों को गिरफ़्तार करने के वॉरंट भी है."
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तीन महीने के अंदर फिर गिरफ़्तारी
जवाहरलाल नेहरू को उसी रात गिरफ़्तार कर लखनऊ ले जाया गया.
ये नेहरू की पहली गिरफ़्तारी थी. इसके बाद वे अपने सियासी जीवन में कुल मिलाकर में रहे
वहाँ चले मुक़दमे के बाद नेहरू को छह महीने की जेल और 100 रुपए जुर्माने की सज़ा सुनाई गई. लेकिन इस फ़ैसले में एक तकनीकी त्रुटि होने के कारण नेहरू को तीन महीने के अंदर रिहा कर दिया गया. छूटते ही नेहरू एक बार फिर रैलियों और सरकार के ख़िलाफ़ माहौल बनाने में लग गए.
नतीजा ये हुआ कि तीन महीनों के अंदर उन्हें एक बार फिर गिरफ़्तार कर लिया गया.
असहयोगात्मक रवैया अपनाते हुए उन्होंने अपना जुर्म मानने और अपने बचाव में कोई दलील देने से इंकार कर दिया.
हाँ, इस मौक़े पर उन्होंने एक वक्तव्य ज़रूर दिया.
उन्होंने कहा, "दरअसल जेल हमारे लिए स्वर्ग जैसी जगह हो गई है. जब से हमारे प्रिय और संत जैसे नेता (महात्मा गांधी) को सज़ा सुनाई गई है, ये हमारे लिए तीर्थस्थान जैसी जगह बन गई है. अपने देश की सेवा करना अपने-आप में बड़े सौभाग्य की बात है लेकिन महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देश की सेवा करना उससे भी बड़े सौभाग्य की बात है."
सूत कातना और किताबें पढ़नाजवाहरलाल नेहरू उम्मीद कर रहे थे कि इस बार उन्हें लंबी सज़ा सुनाई जाएगी.
उन्हें शायद ये बात पसंद नहीं आई थी कि पिछली बार उन्हें समय से पहले रिहा कर दिया गया था ख़ासतौर से ये देखते हुए कि उनके पिता अभी भी जेल के अंदर थे.
सर्वपल्ली गोपाल जवाहरलाल नेहरू की जीवनी में लिखते हैं, "नेहरू ने एक बार कहा था वो जेल के बाहर रह कर अपने-आप को अकेला महसूस करते हैं. उनकी दिली इच्छा है कि वो जल्द से जल्द जेल में वापस लौटें. इस बार उन्हें निराशा नहीं हुई क्योंकि उन्हें 18 महीने की सज़ा सुनाई गई."
"उन्हें लखनऊ ज़िला जेल में रखा गया. जेल में उनसे मिलने वालों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता था. इसलिए नेहरू ने बाहरी लोगों से मिलना बिल्कुल बंद कर दिया. जेल में रहने से उनका आत्मसम्मान बढ़ गया. उन्होंने जेल में अपना समय चहलक़दमी करने और दौड़ने में लगाया. वो अपना अधिकतर समय सूत कातने और पढ़ने में बिताते थे. उनके प्रिय विषय थे इतिहास, यात्रा साहित्य और रोमांटिक काव्य."
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लेकिन इस बार भी उन्हें समय से पहले छोड़ दिया गया क्योंकि यूपी ने 21 जनवरी, 1923 को सभी राजनीतिक कैदियों को क्षमादान देने की घोषणा कर दी.
जल्द ही जवाहरलाल तीसरी बार जेल के सलाखों के पीछे थे.
उन्होंने 21 सितंबर को पंजाब में नाभा में एक सिख जत्थे के साथ प्रवेश किया. वो उसी शाम ट्रेन से दिल्ली लौटने वाले थे. उनको स्थानीय प्रशासन ने आदेश दिया कि वो नाभा के अंदर न प्रवेश करें. प्रशासन ने कहा कि उनकी वजह से इलाके में शांति भंग हो सकती है.
नेहरू ने इसका ये कहकर जवाब दिया कि आदेश मिलने से पहले ही वो नाभा की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं और अब वो हवा में तो ग़ायब हो नहीं सकते. उनका और उनके साथियों का नाभा छोड़ने का कोई इरादा नहीं है.
इस घटना के बारे में जवाहरलाल नेहरू अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "मुझे मेरे साथियों के साथ गिरफ़्तार कर, हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ लगा कर स्टेशन तक लाया गया और हमें रात की गाड़ी में एक तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठा दिया गया."
"24 घंटे बाद हमारी हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ हटाई गईं. हमें नाभा जेल में रखा गया. इस जेल के हालात बहुत ही बुरे थे. हमें न तो पढ़ने के लिए कोई किताब और अख़बार मिला और न ही हमें दो दिन तक नहाने और कपड़े बदलने दिए गए. मुझे और मेरे साथियों को ढाई साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई. लेकिन इस सज़ा को स्थगित रखा गया. हमसे नाभा छोड़ने और वहाँ कभी न लौटने के लिए कहा गया. हमने उसी रात नाभा छोड़ दिया."
जब नेहरू नाभा से इलाहाबाद लौटे तो उनका एक हीरो की तरह स्वागत किया गया.
जेल में बुनी नेवाड़साल 1930 मे महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह के दौरान नेहरू की एक बार फिर गिरफ़्तारी हुई. उनको ख़तरनाक अपराधियों के बैरक में एकांतवास में रखा गया. वहाँ पर जेल की दीवारों की ऊँचाई 15 फुट थी. इसकी वजह से दिन में आसमान और रात में तारों को देखना बहुत मुश्किल हो जाता था.
सर्वपल्ली गोपाल लिखते हैं, "जेल की नीरसता से बचने के लिए नेहरू ने कठिन दिनचर्या के साथ काम करना शुरू कर दिया. वो भोर होते ही उठते. जेल की दीवारों के साथ साथ एक मील तक दौड़ लगाते और फिर कुछ दूरी तक तेज़ गति से चलते."
"वो अपना बाक़ी का दिन चरखे पर सूत कातने और पढ़ने में बिताते. शुरू में जब उन्हें चरखा रखने की भी अनुमति नहीं दी गई थी तो उन्होंने अपने-आप को व्यस्त रखने के लिए नेवाड़ बिनना शुरू कर दिया था जिसे उन्होंने बाद में भी जारी रखा था."
"लेकिन एक अनुशासित कांग्रेस कार्यकर्ता की तरह उनकी मुख्य रुचि चरखा कातने में थी. अपने छह महीने के जेल प्रवास में उन्होंने चरखे पर 30,000 गज और तकली पर 750 गज सूत काता था."
ट्रेन रोक कर एक बार फिर गिरफ़्तारी
26 दिसंबर, 1931 को जवाहरलाल नेहरू को एक बार फिर इलाहाबाद के पास इरादतगंज स्टेशन पर गिरफ़्तार कर लिया गया.
वो उस समय महात्मा गांधी से मिलने के लिए बंबई जा रहे थे. उनपर इलाहाबाद शहर छोड़ने की मनाही थी. इसी आदेश की अवहेलना के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया.
नेहरू अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "जब मैंने अपने डिब्बे की खिड़की से बाहर देखा तो रेलवे लाइन के पास पुलिस की एक गाड़ी खड़ी थी. कुछ क्षणों में कई पुलिस वाले मेरे डिब्बे में चढ़ गए. मुझे और मेरे साथ चल रहे तसद्दुक़ अहमद ख़ाँ शेरवानी को गिरफ़्तार कर लिया गया. हमें नैनी जेल ले जाया गया."
नेहरू और शेरवानी पर यूपी इमरजेंसी पावर्स अध्यादेश के तहत मुक़दमा चलाया गया. शेरवानी को छह महीने की सज़ा दी गई जबकि नेहरू को दो साल और 500 रुपए जुर्माने की सज़ा सुनाई गई.
शेरवानी ने आदेश सुनते ही कहा कि क्या अदालती फ़ैसलों में भी धार्मिक भेदभाव बरता जा रहा है?
वरिष्ठ पत्रकार फ़्रैंक मोरेस जवाहरलाल नेहरू की जीवनी में लिखते हैं, "जेल में नेहरू के खानपान की आदतें बदल गईं. सभी कश्मीरी ब्राह्मणों की तरह वो बचपन से ही मांसाहारी थे. लेकिन जेल में वो पूरी तरह से शाकाहारी हो गए. गाँधीजी की सलाह पर पहले ही उन्होंने धूम्रपान करना छोड़ दिया था."
माँ और पत्नी के अपमान से हुए नेहरू नाराज़पहली बार जेल की ज़िंदगी का असर नेहरू के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
उनके दांतों में दर्द रहने लगा. उनको पहले नैनी जेल में रखा गया और कुछ हफ़्तों बाद बरेली जेल में भेज दिया गया.
बरेली में नाभा के बाद पहली बार हुआ था कि उनकी कोठरी में रात में ताला लगाया जाता था. परिवार के लोगों से मुलाकात भी इस लिहाज़ से मुश्किल हो गई. क्योंकि मुलाक़ात के दौरान जेलर और पुलिसवाले मौजूद रहने लगे और वो बातचीत को लिखने लगे.
सर्वपल्ली गोपाल लिखते हैं, "हालात उस समय और बिगड़ गए जब अप्रैल में लाठीचार्ज में उनकी माँ को पीटा गया और वो बुरी तरह से घायल हो गईं. जब वो और उनकी पत्नी कमला जेल में नेहरू से मिलने आईं तो जेलर ने उनका अपमान किया. और तो और जेलर ने नेहरू के किसी से मिलने पर एक महीने का प्रतिबंध लगा दिया."
"नेहरू इससे इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने घोषणा कि वो एक महीने बाद भी किसी से नहीं मिलेंगे क्योंकि वो जेलर को अपनी माँ और पत्नी को अपमानित करने का एक और मौका नहीं देना चाहते थे. आठ महीने बाद गाँधी की सलाह पर उन्होंने लोगों से फिर मिलना शुरू किया."
ये भी पढ़ें-जेल में नेहरू का प्रिय योगासन शीर्षासन हुआ करता था. शीर्षासन से उन्हें न सिर्फ़ शारीरिक स्फूर्ति मिलती थी बल्कि वो मनोवैज्ञानिक प्रेरणा का काम भी करता था.
फ़्रैंक मोरेस लिखते हैं, "जेल में नेहरू का मुख्य शग़ल होता था गिलहरियों की अठखेलियों को देखना. देहरादून जेल में नेहरू ने दो कुत्तों को अपना लिया था. बाद में कुत्तों के बच्चे भी हुए. नेहरू ने उनका भी ध्यान रखना शुरू कर दिया. उनकी जेल की कोठरी में साँपों, बिच्छुओं और कनखजूरों का भी आना जाना लगा रहता था."
"कनखजूरों से नेहरू को ख़ास उलझन होती थी. एक रात उन्हें अपने पैरों पर कुछ चलता महसूस हुआ, उन्होंने तुरंत अपनी टॉर्च जलाई तो देखा एक कनखजूरा उनके पाँव पर चल रहा था. नेहरू कूद कर अपने बिस्तर से नीचे उतरे."
ठुकराया बिरला का अनुरोधअगस्त में जब बीमार कमला नेहरू की हालत बिगड़ गई तो यूपी सरकार ने कुछ दिनों के लिए नेहरू को रिहा किया.
11 दिनों बाद जब कमला की हालत थोड़ी सुधरी तो नेहरू को वापस जेल भेज दिया गया. जेल में ही जून, 1934 में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखनी शुरू की और 14 फ़रवरी, 1935 को उन्होंने ये काम पूरा कर लिया.
ये तय किया गया कि कमला को इलाज के लिए यूरोप ले जाया जाए. पहली बार नेहरू को पैसों की चिंता हुई. उनके पास आय का कोई साधन नहीं था. थोड़ा बहुत धन उनकी किताबों की रॉयल्टी से आता था. उसी के सहारे उन्हें आनंद भवन का पूरा ख़र्चा चलाना पड़ता था.
सर्वपल्ली गोपाल लिखते हैं, "इन्हीं दिनों नेहरू की आर्थिक कठिनाइयों के बारे में सुनकर बिरला परिवार के एक व्यक्ति ने उन्हें एक मासिक राशि देने की पेशकश की. बिरला परिवार कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं को इस तरह की राशि दिया करता था."
"जब नेहरू को इस पेशकश के बारे में पता चला तो उन्हें ये बात पसंद नहीं आई. उन्होंने इस पेशकश को ठुकरा दिया. अपनी छोटी मोटी बचत के बल पर उन्होंने कमला, इंदिरा और उनके डॉक्टर के यूरोप जाने का इंतज़ाम किया."
सार्वजनिक रूप से रोना पसंद नहीं था नेहरू कोजब नेहरू अलीगंज जेल में बंद थे, उनके चचेरे भाई बीके नेहरू ने एक हंगेरियन महिला फ़ोरी से शादी की.
चूँकि नेहरू परिवार के मुखिया थे इसलिए फ़ोरी को नेहरू से मिलवाने कलकत्ता की अलीगंज जेल ले जाया गया. जब मुलाकात का समय समाप्त हुआ और जेल का दरवाज़ा बंद किया जाने लगा तो फ़ोरी अपने आँसू नहीं रोक पाईं.
बीके नेहरू अपनी आत्मकथा 'नाइस गाइज़ फ़िनिश सेकेंड' में लिखते हैं, "जवाहरलाल की नज़र से ये छिपा नहीं रह सका. अगले दिन उन्होंने फ़ोरी को पत्र लिख कर कहा, अब जब तुम नेहरू परिवार का सदस्य बनने जा रही हो, तुम्हें परिवार के क़ायदे क़ानून भी सीख लेने चाहिए. सबसे पहली चीज़ जिस पर तुम्हें ध्यान देना चाहिए वो ये है कि चाहे जितना बड़ा दुख हो, नेहरू कभी भी किसी के सामने नहीं रोते."
अहमदनगर जेल में सबसे लंबा समय बितायानेहरू आख़िरी बार अहमदनगर जेल में रहे. एक बार में इतनी लंबी अवधि उन्होंने इससे पहले किसी जेल में नहीं बिताई थी.
9 अगस्त 1942 से लेकर 15 जून, 1945 तक यानी कुल मिलाकर 1040 दिन.
पहले उनको ट्रेन से पूना ले जाया गया. उन्हें पूना स्टेशन पर लोगों ने पहचान लिया.
मीरा बेन अपनी किताब 'द स्पिरिट्स पिलग्रिमेज' में लिखती हैं, "जब पुलिस ने जवाहरलाल नेहरू की तरफ़ भागते हुए लोगों को देखा तो उन्होंने उनपर लाठीचार्ज करना शुरू कर दिया. जवाहरलाल फुर्ती से ट्रेन की खिड़की से प्लेटफ़ॉर्म पर कूद गए. उनपर चार पुलिसवालों ने मिल कर क़ाबू पाया और बड़ी मुश्किल से दोबारा ट्रेन पर चढ़ाया. अहमदनगर पहुंच कर पुलिस अफ़सर ने नेहरू से जो कुछ भी हुआ था उसके लिए माफ़ी माँगी. उसने साफ़ किया कि वो सिर्फ़ आदेशों का पालन कर रहा था."
जेल में बागवानी और बैडमिंटनअहमदनगर में कांग्रेस की पूरी कार्यसमिति बंद थी, बाहरी दुनिया से उनका किसी तरह का संपर्क नहीं था. समाचार पत्र और मुलाकातें तो दूर उन्हें पत्र लिखने तक इजाज़त नहीं थी. बाहरी दुनिया को ये तक नहीं पता था कि उन्हें कहाँ रखा गया है.
सर्वपल्ली गोपाल लिखते हैं, "बाद में उन्हें अख़बार पढ़ने और हर सप्ताह परिवार वालों को दो पत्र लिखने की अनुमति दे दी गई लेकिन नेहरू को इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ, क्योंकि उनकी बेटी और बहन दोनों यूपी की जेलों में बंद थीं. वहाँ की सरकार ने उन्हें नेहरू के सेंसर से पारित पत्र प्राप्त करने और लिखने की अनुमति नहीं दी. बाद में नेहरू को कुछ किताबें बाहर से मंगवाने की इजाज़त मिल गई लेकिन इन किताबों को नेहरू को देने से पहले बाक़ायदा स्कैन कर देखा जाता था."
"दो साल बाद सरकार ने नेहरू समेत अहमदनगर के सभी राजनैतिक क़ैदियों को बाहर के लोगों से मिलने की इजाज़त दे दी लेकिन उन्होंने इस सुविधा को लेने से साफ़ इनकार कर दिया. उनका तर्क था कि इतने साल तक अलग-थलग रहने के बाद कुछ मिनटों की मुलाकात का कोई मतलब नहीं है."
अहमदनगर जेल में इतने लंबे प्रवास की वजह से कांग्रेस नेताओं में रोज़ तीखी बहस होती.
नतीजा ये हुआ कि कुछ नेताओं की आपस में बोलचाल ही बंद हो गई. इस तनाव से बचने के लिए नेहरू खुद काफ़ी मेहनत करते. वो खाना बनाते, बीमारों की तीमारदारी करते, बैडमिंटन और वॉलीबॉल मैच खेलते और बागवानी भी करते.
13 अप्रैल, 1944 को उन्होंने अपनी अधूरी किताब को फिर से लिखना शुरू किया और 7 सितंबर, 1944 को उन्होंने वो किताब पूरी कर ली.
उस किताब का नाम था 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'.
दिसंबर, 1921 से लेकर 15 जून, 1945 तक नेहरू ने अपने जीवन के 3,259 दिन यानी करीब 9 वर्ष अंग्रेज़ों की जेलों में बिताए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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