पुरानी लोक कथाओं के मुताबिक एक जंगल में खरगोश, बंदर, सियार और ऊदबिलाव रहते थे। यह चारों पक्के मित्र थे। 1 दिन इन चारों ने सोचा कि आखिर मनुष्य आत्म कल्याण के लिए दान क्यों करते हैं। इन चारों के मन में विचार आया कि हम भी अपने आत्म कल्याण के लिए दान करेंगे। चारों मित्र तैयार हो गए।
बंदर ने दान करने के लिए अगले दिन जंगल के एक पेड़ से फल तोड़ लिए, जबकि सियार गांव में गया और किसी परिवार से दही की हांडी चुरा लाया। खरगोश के मन में विचार आया कि यदि मैं किसी को घास-पत्ती दान करता हूं, तो इसका कुछ भी फल नहीं मिलेगा और ना ही यह किसी के काम आएगा। इसलिए खरगोश ने खुद को दान करने की सोची।
देवराज इंद्र को खरगोश के आत्मत्याग की बात पता चल गई। उन्होंने इन चारों की परीक्षा लेने का विचार किया। देवराज इंद्र ने ऋषि का वेश धारण कर लिया और जंगल में पहुंच गए।
जब इन चारों दोस्तों को पता चला कि जंगल में कोई ऋषि आया है तो यह चारों ऋषि के पास दान करने के लिए पहुंच गए। ऋषि को बंदर ने फल, सियार ने दही और ऊदबिलाव ने मछलियां दान की। तीनों जानवरों को इस बात का बहुत ही घमंड हो रहा था कि खरगोश के पास दान करने के लिए कुछ भी नहीं है। खरगोश को ऋषि के गुस्से का सामना करना पड़ेगा।
जब खरगोश के दान की बारी आई तो खरगोश ने ऋषि से कहा कि मैं खुद को ही दान करना चाहता हूं। कृपया मेरा मांस स्वीकार करें। खरगोश ने वहां पर आग जलाई। फिर अपने रोमो को झटका जिससे कि उसके रोमों में मौजूद छोटे-मोटे जीव निकल गए। फिर वह आग में कूद गया।
ऋषि के वेश में आए देवराज इंद्र खरगोश की दान वीरता से बहुत ज्यादा खुश हुए। खरगोश आग में कूदने के बावजूद भी नहीं जला, क्योंकि इंद्र ने अपनी माया से आग जलाई थी।
इंद्र ने ऋषि के रूप को छोड़ अपने असली रूप में आ गए। इंद्र ने खरगोश से कहा कि तुमने बिना किसी स्वार्थ के मुझे दान किया है। मुझे तुम्हारी त्याग की भावना सबसे श्रेष्ठ लगे। तुम महादानी हो, अतः तुम्हारा कल्याण जरूर होगा।
कथा की सीख
इस कथा से हमें सीख मिलती है कि हम जो भी दान करते हैं, उस पर घमंड नहीं करना चाहिए। अगर हम अपने दान का घमंड करेंगे तो उसका कोई फल नहीं मिलेगा। हर किसी को बिना किसी स्वार्थ के दान करना चाहिए। वहीं दान सबसे श्रेष्ठ होता है।
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