नई दिल्ली, 20 जून . अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस होने के अलावा 21 जून एक और वजह से खास है. यह विनीता सोरेन का जन्मदिन है, एक ऐसी युवती का जिसने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर को छूकर यह साबित कर दिया कि सपनों की ऊंचाई किसी सामाजिक सीमा में नहीं बंधी होती.
झारखंड के एक छोटे से गांव से दुनिया की सबसे ऊंची चोटी तक का सफर तय करने वाली विनीता सोरेन आज देशभर की लड़कियों के लिए एक प्रेरणा बन चुकी हैं. 21 जून 1987 को जन्मी विनीता ने न केवल माउंट एवरेस्ट फतह किया, बल्कि अपने जुनून, जज्बे और जिद के बल पर भारतीय आदिवासी समाज को भी एक नई पहचान दिलाई.
झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के राजनगर प्रखंड के केसोरसोरा गांव की मूल निवासी विनीता का जीवन आम आदिवासी लड़कियों की तरह ही शुरू हुआ – खेतों में काम, सीमित शिक्षा, सीमित सपने, लेकिन विनीता के सपने एवरेस्ट से भी ऊंचे थे.
टाटा स्टील के सीएसआर कार्यक्रम के तहत जब उन्होंने पहली बार “एडवेंचर एक्टिविटी” के बारे में जाना, तो वही उनका टर्निंग पॉइंट बना. घरवालों के विरोध और आसपास प्रेरणा की कमी के बावजूद विनीता ने हार नहीं मानी. कई टेस्ट पास कर वह इस दिशा में आगे बढ़ीं. इसी दौरान उनकी मुलाकात भारत की पहली महिला एवरेस्ट विजेता बछेंद्री पाल से हुई, जिन्होंने विनीता की प्रतिभा को पहचाना और उन्हें मार्गदर्शन दिया.
विनीता ने 20 मार्च 2012 को जमशेदपुर से अपने दो साथियों मेघलाल महतो और राजेंद्र के साथ अभियान शुरू किया. यह आम अभियान नहीं था. उन्होंने एवरेस्ट फतह के लिए सबसे कठिन मार्ग लुकला रूट चुना. बर्फीली हवाओं, जानलेवा ठंड, कमजोर पड़ते शरीर और जान गंवाने के खतरे के बीच विनीता डटी रहीं. आखिरकार, 26 मई 2012 को सुबह 6:50 बजे विनीता और मेघलाल ने एवरेस्ट पर तिरंगा लहराया.
विनीता बताती हैं कि उनका बचपन खेतों, सीमाओं और सीमित सोच के बीच बीता. उन्होंने कहा, “यहां लड़कियों के लिए टीचिंग या नर्सिंग ही करियर माने जाते थे, लेकिन मेरा सपना अलग था.”
एवरेस्ट फतह करने से पहले उन्हें सात साल की कठोर मेहनत करनी पड़ी. उन्होंने सीखा कि पर्वतारोहण केवल ताकत नहीं, बल्कि मेंटल स्ट्रेंथ, साहस और संकल्प की परीक्षा है.
आज विनीता सिर्फ एक पर्वतारोही नहीं, बल्कि भारत के आदिवासी समुदाय की बेटी, महिला शक्ति की प्रतीक, और नई पीढ़ी की रोल मॉडल हैं.
उनकी कहानी बताती है कि “जितनी ऊंची चुनौती, उतनी ही ऊंची जीत.”
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डीएससी/एकेजे
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