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Kapal Kriya: कपाल क्रिया क्या होती है, मृत्यु के बाद आत्मा की शांति के लिए क्यों जरूरी है?

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गरुड़ पुराण में कपाल क्रिया को मृत्यु के बाद की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और अनिवार्य प्रक्रिया बताया गया है। हिंदू धर्म में जब किसी व्यक्ति का अंतिम संस्कार किया जाता है, तो केवल शरीर का जलना पर्याप्त नहीं होता। आत्मा की पूर्ण मुक्ति हेतु विशेष विधियों को अपनाया जाता है, जिनमें कपाल क्रिया का स्थान प्रमुख है। यह विधि आत्मा को शारीरिक बंधनों से मुक्त करने का मार्ग दर्शाती है।

कपाल क्रिया का तात्पर्य होता है मृत व्यक्ति की खोपड़ी को तोड़ना। जब शव चिता पर रखा जाता है और मुखाग्नि दी जा चुकी होती है, तब एक विशेष लकड़ी के डंडे से मृतक के सिर पर तीन बार प्रहार किया जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि सिर के ऊपरी भाग में स्थित ब्रह्मरंध्र खुल सके। ब्रह्मरंध्र को जीवन और मोक्ष का द्वार माना जाता है, जिससे आत्मा निकलकर आगे की यात्रा पर जाती है।


गरुड़ पुराण में यह उल्लेख है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा 13 दिनों तक प्रेत योनि में निवास करती है। इस अवधि में जो भी संस्कार किए जाते हैं, विशेष रूप से कपाल क्रिया, वे आत्मा को गति प्रदान करते हैं। यदि यह प्रक्रिया न की जाए तो आत्मा अधर में अटक सकती है और उसे शांति नहीं मिलती। इस कारण इसे केवल एक धार्मिक रस्म न मानकर, एक आध्यात्मिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया गया है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कपाल क्रिया आत्मा की यात्रा को सुगम बनाती है। माना जाता है कि यदि ब्रह्मरंध्र नहीं खुलता, तो आत्मा बंधनों से मुक्त नहीं हो पाती और वह पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसी रहती है। इस प्रक्रिया के माध्यम से आत्मा को पंचतत्वों में विलीन किया जाता है, जिससे वह मोक्ष की ओर अग्रसर होती है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो मानव खोपड़ी अत्यंत कठोर होती है और सामान्य चिता की अग्नि में पूरी तरह नहीं जलती। यदि खोपड़ी अधजली रह जाए, तो धार्मिक मान्यता के अनुसार यह आत्मा की मुक्ति में बाधा बन सकती है। कपाल क्रिया इस अधूरी जलन को समाप्त कर यह सुनिश्चित करती है कि शरीर पूर्ण रूप से पंचतत्वों में विलीन हो सके।



वर्तमान समय में शहरी क्षेत्रों में आधुनिक इलेक्ट्रिक अथवा गैस श्मशानों का उपयोग बढ़ गया है, जहाँ तापमान अत्यधिक होता है और खोपड़ी पूरी तरह जल जाती है। ऐसे में इन स्थानों पर कपाल क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती। फिर भी पारंपरिक चिता संस्कारों में यह आज भी अनिवार्य मानी जाती है। गरुड़ पुराण के अनुसार यह एक अनादि परंपरा है, जो धर्म, श्रद्धा और आत्मिक मुक्ति का प्रतीक मानी जाती है और इसे निभाना एक पवित्र कर्तव्य समझा जाता है।

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