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मोदी सरकार में महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता, खोखले दावे और झूठे नारे तक सीमित

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हमारे प्रधानमंत्री जी लगातार महिला सशक्तीकरण के दावे करते हैं, अपने आप को महिलाओं का रहनुमा बताते हैं, पर उनके हरेक ऐसे दावे के बाद महिलाओं की स्थिति पहले से भी अधिक खराब हो जाती है। हाल में ही उत्तर प्रदेश की डबल इंजन सरकार ने वहां के कानून-व्यवस्था पर समाचारपत्रों में पूरे एक पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित किया था। इसके अनुसार पिछले 8 वर्षों में उत्तर प्रदेश में 2.16 लाख पुलिस के जवानों की भर्ती की गई है, जिसमें से महज 27178 महिलाएं हैं, यानि 13 प्रतिशत से भी कम। महिलाओं की लगभग आधी आबादी होने के बाद भी इनकी सुरक्षा के लिए पूरे राज्य में महज 75 महिला पुलिस स्टेशन और 78 महिला पुलिस काउंसिलिंग केंद्र हैं। बीजेपी राज में आधी आबादी की सुरक्षा भाषणों में अधिक पर वास्तविकता में नगण्य है।

देश में वर्ष 2011 के जनगणना के समय कुल आबादी 121.1 करोड़ थी, जिसमें महिलाएं 48.5 प्रतिशत थीं। मोदी सरकार लगातार महिलाओं के सशक्तीकरण की बात करती है, विकास का दावा करती है पर सत्य तो यह है कि वर्ष 2036 तक देश की कुल अनुमानित आबादी 152.2 करोड़ होगी, जिसमें महिलाओं की संख्या 48.8 प्रतिशत ही होगी। जाहिर है देश में लैंगिक अनुपात में कोई खास अंतर नहीं आने वाला है।

ये आंकड़े, सांख्यिकी मंत्रालय की एक रिपोर्ट, वुमन एंड मेन इन इंडिया 2022, में प्रकाशित हैं। इस रिपोर्ट के कवर पर 2022 जरूर लिखा है, जी 20 और आजादी के अमृत महोत्सव का लोगो भी है पर निश्चित तौर पर यह रिपोर्ट 2023 तक उपलब्ध नहीं थी। यह शायद पहली रिपोर्ट होगी जिसमें मैसेज, फोरवर्ड, प्रीफेस और एकनॉलेजमेन्ट सभी सरकारी लेटरहेड पर हैं पर कहीं कोई तारीख नहीं है। इस रिपोर्ट की शुरुआत देश में पुरुष और महिलाओं की स्थिति से नहीं होती बल्कि सरकारी नीतियों की विवेचना से होती है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, देश के शहरी क्षेत्रों में लैंगिक अनुपात, प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या, में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। शहरी क्षेत्रों में लैंगिक अनुपात वर्ष 2011 में 929 था, जो 2025 में 930 पहुंच गया- पर रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2031 में यह फिर 929 हो जाएगा और वर्ष 2036 तक शहरों में लैंगिक अनुपात गिरकर 926 ही रह जाएगा। यह स्थिति अधिक खतरनाक है क्योंकि शहरी आबादी और शहरों का क्षेत्र भी लगातार बढ़ता जा रहा है।

हाल में ही वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने ग्लोबल जेन्डर गैप रिपोर्ट 2025 प्रकाशित किया है। इसमें शामिल कुल 148 देशों में भारत का स्थान 131वां है। जाहिर है हमारे देश के मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस रिपोर्ट को पूरी तरह से समाचारों से गायब कर दिया। मोदी जी का महिला सशक्तीकरण वाला भारत पिछले वर्ष की तुलना में तीन स्थान पर पहुंच गया है।

प्रधानमंत्री जी के अनुसार दुनिया में कभी चौथी तो कभी पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के बीच झूलता भारत बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में, बड़ी आबादी वाले देशों में, प्रजातान्त्रिक देशों में, जी7 या जी20 देशों में, दुनिया के सभी देशों की तुलना में सबसे पीछे है। प्रधानमंत्री मोदी के देश भारत को पिछले कुछ वर्षों से ऐसा तमगा लगातार मिलता रहा है। भारत की लैंगिक समानता के क्षेत्र में स्थिति तो यहां तक पहुँच गई है कि दुनिया के निम्न मध्यम आय वाले इंडेक्स में मौजूद 40 देशों में भी 34 वें स्थान पर है और दक्षिण एशिया के 7 देशों में भारत पांचवें स्थान पर है।

इस इंडेक्स में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी के संदर्भ में हम 148 देशों में 144वें स्थान पर और महिलाओं के स्वास्थ्य के संदर्भ में 143वें स्थान पर हैं। लैंगिक समानता के संदर्भ में पूरे विश्व का औसत अंक 0.688 और दक्षिण एशिया का औसत अंक 0.646 है, पर इंडेक्स में भारत का अंक महज 0.644 है। दक्षिण एशिया के देशों में भारत से भी नीचे केवल 2 देश हैं- मालदीव 138वें स्थान पर और पाकिस्तान 148वें स्थान पर। इन 2 देशों के अतिरिक्त पूरे इंडेक्स में भारत से भी नीचे के स्थान वाले देश हैं- सऊदी अरब, पापुआ न्यू गिनिया, ओमान, तुर्किए, लेबेनान, मोरक्को, ईजीप्ट, माली, अल्जेरिया, नाइज़र, कांगो, गिनीआ, ईरान, चाड और सूडान।

इस इंडेक्स में भारत के पड़ोसी देशों में सबसे आगे 24वें स्थान पर बांग्लादेश है। इसके बाद चीन 103वें, भूटान 119वें, नेपाल 125वें, श्रीलंका 130वें और पाकिस्तान 148वें स्थान पर है। बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में ऑस्ट्रेलिया 13वें, मेक्सिको 23वें, कनाडा 32वें, साउथ अफ्रीका 33वें, फ़्रांस 35वें, अमेरिका 42वें, संयुक्त अरब अमीरात 69वें, ब्राजील 72वें, इटली 85वें और जापान 118वें स्थान पर है। इंडेक्स में पहले स्थान पर आइसलैंड है, इसके बाद के देश इस क्रम से हैं- फ़िनलैंड, नॉर्वे, यूनाइटेड किंगडम, न्यूज़ीलैंड, स्वीडन, मॉल्डोवा, नामीबिया, जर्मनी और आयरलैंड।

महिलाओं की स्थिति देश में ऐसी हो गई है कि इनकी बदहाली के आंकड़े सरकारी रिपोर्ट में भी नजर आने लगे हैं। महिलाओं में खून की कमी, अनेमिया, पर पिछले कुछ दशकों से चर्चा की जा रही है, पर मोदी सरकार में पहले से अधिक महिलाएं इसका शिकार हो रही हैं। वुमन एण्ड मेन इन इंडिया 2022 नामक रिपोर्ट में अनेमिया से संबंधित वर्ष 2015-16 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 और वर्ष 2019-21 के बीच किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 के आंकड़े साथ-साथ दिए गए हैं।

इन आंकड़ों के अनुसार 2015-16 में 53.1 प्रतिशत महिलाएं अनेमिया का शिकार थीं, पर वर्ष 2019-21 तक इनकी संख्या 57 प्रतिशत तक पहुंच गई। वर्ष 2015-16 में गर्भवती महिलाओं में से 50.4 प्रतिशत महिलाएं अनेमिया से पीड़ित थीं, जबकि वर्ष 2019-21 तक इनकी संख्या 52.2 प्रतिशत तक पहुंच गई। यदि आप बीजेपी शासित राज्यों की स्थिति देखें तो फिर यह अंतर और भी बड़ा नजर आता है।

गुजरात में वर्ष 2015-16 में कुल महिलाओं में से 54.9 प्रतिशत और गर्भवती महिलाओं में से 51.3 प्रैशत महिलाएं अनेमिया की चपेट में थीं, जबकि वर्ष 2019-21 तक कुल महिलाओं में 65 प्रतिशत और गर्भवती महिलाओं में से 62.6 प्रतिशत में यह समस्या थी। लंबे समय तक केंद्र सरकार के नियंत्रण में रहे जम्मू और कश्मीर में वर्ष 2015-16 में महज 48.9 प्रतिशत महिलाएं अनेमिया का शिकार थीं पर वर्ष 2019-21 तक यह संख्या 65.9 प्रतिशत तक पहुंच गई।

महिला सशक्तीकरण, लैंगिक समानता और दूसरी सामाजिक समस्याओं जैसे क्षेत्रों में मोदी सरकार देश को लगातार पीछे ले जा रही है। अब किसी क्षेत्र में विकास उन्नति से नहीं मापा जाता बल्कि मीडिया और सत्ता के झूठे दावों, पोस्टरों और प्रधानमंत्री मोदी की मुस्कुराती तस्वीरों वाले विज्ञापनों से मापा जाता है। अब यही तथाकथित विकसित भारत की हकीकत है।

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