लेखक: ज. मोहन चंद्र भंडारी (रि.)
इजरायल का गाजा, लेबनान और ईरान के खिलाफ एक साथ युद्ध लड़ना एक जटिल रणनीति का परिणाम है, जो एक छोटे से देश के लिए असाधारण बात मानी जा सकती है। इसका आधार इसकी सैन्य और कूटनीतिक साझेदारी, विशेष रूप से अमेरिका के साथ में निहित है। 1948 में इजरायल के गठन के समय कई मुस्लिम देशों ने इसे मान्यता नहीं दी थी, लेकिन अमेरिका ने इसे पूर्ण समर्थन दिया। आज यह अमेरिका के प्रॉक्सी के रूप में कार्य करता है।
शक्ति का स्रोत: इजरायल की सैन्य ताकत का आधार इसकी ऐतिहासिक जड़ें और लोगों की प्रखर बुद्धि में है। बाइबल में यहूदियों के घूमने और बाद में देश बनाने की बात ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया, जहां हर व्यक्ति- चाहे लड़का हो या लड़की- लड़ाई के लिए तैयार रहता है। इसके अलावा, इजरायल ने तकनीकी क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। पेगासस जैसे जासूसी सॉफ्टवेयर, उन्नत हथियार प्रणालियां और साइबर सुरक्षा में वह विश्व में अग्रणी है। अमेरिका के साथ साझेदारी ने इसे और मजबूत किया है, जिसमें विमान, मिसाइलें और खुफिया जानकारी शामिल हैं। इसकी प्रौद्योगिकी न केवल इसकी अपनी जरूरतों को पूरा करती है, बल्कि यह अमेरिकी रक्षा और बिजनेस उद्योगों में भी योगदान देती है, जिससे यह तकनीकी शक्ति बन गया है।
युद्ध की आर्थिकी: इतने बड़े पैमाने पर सैन्य अभियानों की लागत आसमान छूती है, जिसमें हवाई हमले, मिसाइल रक्षा और सैन्य तैनाती शामिल हैं। इजरायल इसे अपने आर्थिक संसाधनों, अमेरिकी सहायता और उन्नत तकनीक की मदद से अंजाम देता है। कुछ मानते हैं कि यह दीर्घकालिक कर्ज भी ले सकता है, लेकिन तकनीकी दक्षता और अमेरिका से मिलने वाली वित्तीय मदद इसे स्थिर रखती है। इजरायल हथियार प्रणालियां, मिसाइलें और हवाई जहाज अक्सर अमेरिका से सहायता लेकर बनाता है। हालांकि, लगातार युद्धों से इसकी जनसंख्या पर दबाव और अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा है।
अमेरिकी रोल: ट्रंप प्रशासन के दौरान इजरायल को अमेरिका का समर्थन और बढ़ गया है। अमेरिका ने इजरायल की खातिर ईरान के न्यूक्लियर ठिकाने पर हमला भी किया है। लेकिन क्या अमेरिकी सैन्य मदद के बिना इजरायल ऐसे युद्ध लंबे समय तक लड़ सकता है? मेरा मानना है कि यह संभव नहीं होगा।
मोसाद मॉडल: मोसाद और IDF इजरायल की रीढ़ हैं। ईरान में न्यूक्लियर साइंटिस्ट्स और सेना कमांडरों की हत्याएं इसकी सटीकता का सबूत हैं। मोसाद को विश्व की सबसे प्रभावी और खतरनाक खुफिया एजेंसियों में से एक माना जाता है, जो जासूसी और लक्षित हमलों में माहिर है। क्या अन्य देश इस मॉडल से प्रेरणा ले सकते हैं? यह सवाल युद्ध रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी तकनीक और योजना अद्वितीय है।
ईरान की रणनीति: वहीं ईरान अपनी मिसाइलों, ड्रोनों और प्रॉक्सी समूहों के जरिए इजरायल का जवाब दे रहा है। ईरान को चीन और रूस से हथियार मिल रहे हैं। कुछ का मानना है कि अमेरिका ईरान के कट्टरपंथी शासन का प्रभाव खत्म करना चाहता है। शाह रजा पहलवी के समय ईरानी महिलाएं पूरी तरह से आधुनिक थीं, लेकिन कट्टरपंथियों के शासन में आने पर यह बदल गया।
दोहरा रवैया: 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1972 के शिमला समझौते से सबक लेते हुए पाकिस्तान ने परमाणु शक्ति हासिल की। जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि ‘पाकिस्तान हजार साल तक घास खाएगा, लेकिन परमाणु बम बनाएगा।’ अमेरिका ने पाकिस्तान को नहीं रोका, लेकिन ईरान पर सख्ती क्यों? यह अमेरिकी नीति का दोहरा चेहरा दर्शाता है। आज भी पाकिस्तान की न्यूक्लियर क्षमता इजरायल के लिए खतरा है और इससे क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ रहा है। क्या अमेरिका का ईरान पर ध्यान केवल अपने हितों के लिए है, यह भी एक बड़ा सवाल है।
भू-राजनीतिक खेल: मध्य पूर्व में अमेरिका, इजरायल के जरिए ईरान को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन और रूस ईरान का समर्थन कर रहे हैं। 56 मुस्लिम देशों में सुन्नी-शिया विभाजन इसे और जटिल बनाता है। अमेरिका ने मध्य पूर्व में हथियार और विमान तैनात कर रखे हैं, जो रूस और चीन के खिलाफ इस्तेमाल हो सकते हैं। भारत जैसे देश भी इस खेल में अपनी कूटनीति से संतुलन बनाए हुए हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री के कनाडा दौरे के बाद देखा गया।
तकनीक के सहारे: इस बीच, अमेरिका की इस युद्ध में आगे क्या भूमिका रहती है, इस पर भी दुनिया की निगाह है। वहीं, पूतिन ने कहा है कि वह ईरान और इजरायल के बीच मध्यस्थता करने के इच्छुक हैं। इतना तो तय है कि अगले कुछ दिन इस संघर्ष की दिशा तय करेंगे। पर यह किस ओर बढ़ेगा, यह इजरायल और अमेरिका की रणनीति पर निर्भर करेगा। निश्चित रूप से यह विश्व शांति के लिए खतरा है।
इजरायल का गाजा, लेबनान और ईरान के खिलाफ एक साथ युद्ध लड़ना एक जटिल रणनीति का परिणाम है, जो एक छोटे से देश के लिए असाधारण बात मानी जा सकती है। इसका आधार इसकी सैन्य और कूटनीतिक साझेदारी, विशेष रूप से अमेरिका के साथ में निहित है। 1948 में इजरायल के गठन के समय कई मुस्लिम देशों ने इसे मान्यता नहीं दी थी, लेकिन अमेरिका ने इसे पूर्ण समर्थन दिया। आज यह अमेरिका के प्रॉक्सी के रूप में कार्य करता है।
शक्ति का स्रोत: इजरायल की सैन्य ताकत का आधार इसकी ऐतिहासिक जड़ें और लोगों की प्रखर बुद्धि में है। बाइबल में यहूदियों के घूमने और बाद में देश बनाने की बात ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया, जहां हर व्यक्ति- चाहे लड़का हो या लड़की- लड़ाई के लिए तैयार रहता है। इसके अलावा, इजरायल ने तकनीकी क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। पेगासस जैसे जासूसी सॉफ्टवेयर, उन्नत हथियार प्रणालियां और साइबर सुरक्षा में वह विश्व में अग्रणी है। अमेरिका के साथ साझेदारी ने इसे और मजबूत किया है, जिसमें विमान, मिसाइलें और खुफिया जानकारी शामिल हैं। इसकी प्रौद्योगिकी न केवल इसकी अपनी जरूरतों को पूरा करती है, बल्कि यह अमेरिकी रक्षा और बिजनेस उद्योगों में भी योगदान देती है, जिससे यह तकनीकी शक्ति बन गया है।
युद्ध की आर्थिकी: इतने बड़े पैमाने पर सैन्य अभियानों की लागत आसमान छूती है, जिसमें हवाई हमले, मिसाइल रक्षा और सैन्य तैनाती शामिल हैं। इजरायल इसे अपने आर्थिक संसाधनों, अमेरिकी सहायता और उन्नत तकनीक की मदद से अंजाम देता है। कुछ मानते हैं कि यह दीर्घकालिक कर्ज भी ले सकता है, लेकिन तकनीकी दक्षता और अमेरिका से मिलने वाली वित्तीय मदद इसे स्थिर रखती है। इजरायल हथियार प्रणालियां, मिसाइलें और हवाई जहाज अक्सर अमेरिका से सहायता लेकर बनाता है। हालांकि, लगातार युद्धों से इसकी जनसंख्या पर दबाव और अर्थव्यवस्था पर असर पड़ रहा है।
अमेरिकी रोल: ट्रंप प्रशासन के दौरान इजरायल को अमेरिका का समर्थन और बढ़ गया है। अमेरिका ने इजरायल की खातिर ईरान के न्यूक्लियर ठिकाने पर हमला भी किया है। लेकिन क्या अमेरिकी सैन्य मदद के बिना इजरायल ऐसे युद्ध लंबे समय तक लड़ सकता है? मेरा मानना है कि यह संभव नहीं होगा।
मोसाद मॉडल: मोसाद और IDF इजरायल की रीढ़ हैं। ईरान में न्यूक्लियर साइंटिस्ट्स और सेना कमांडरों की हत्याएं इसकी सटीकता का सबूत हैं। मोसाद को विश्व की सबसे प्रभावी और खतरनाक खुफिया एजेंसियों में से एक माना जाता है, जो जासूसी और लक्षित हमलों में माहिर है। क्या अन्य देश इस मॉडल से प्रेरणा ले सकते हैं? यह सवाल युद्ध रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसकी तकनीक और योजना अद्वितीय है।
ईरान की रणनीति: वहीं ईरान अपनी मिसाइलों, ड्रोनों और प्रॉक्सी समूहों के जरिए इजरायल का जवाब दे रहा है। ईरान को चीन और रूस से हथियार मिल रहे हैं। कुछ का मानना है कि अमेरिका ईरान के कट्टरपंथी शासन का प्रभाव खत्म करना चाहता है। शाह रजा पहलवी के समय ईरानी महिलाएं पूरी तरह से आधुनिक थीं, लेकिन कट्टरपंथियों के शासन में आने पर यह बदल गया।
दोहरा रवैया: 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1972 के शिमला समझौते से सबक लेते हुए पाकिस्तान ने परमाणु शक्ति हासिल की। जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि ‘पाकिस्तान हजार साल तक घास खाएगा, लेकिन परमाणु बम बनाएगा।’ अमेरिका ने पाकिस्तान को नहीं रोका, लेकिन ईरान पर सख्ती क्यों? यह अमेरिकी नीति का दोहरा चेहरा दर्शाता है। आज भी पाकिस्तान की न्यूक्लियर क्षमता इजरायल के लिए खतरा है और इससे क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ रहा है। क्या अमेरिका का ईरान पर ध्यान केवल अपने हितों के लिए है, यह भी एक बड़ा सवाल है।
भू-राजनीतिक खेल: मध्य पूर्व में अमेरिका, इजरायल के जरिए ईरान को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है, जबकि चीन और रूस ईरान का समर्थन कर रहे हैं। 56 मुस्लिम देशों में सुन्नी-शिया विभाजन इसे और जटिल बनाता है। अमेरिका ने मध्य पूर्व में हथियार और विमान तैनात कर रखे हैं, जो रूस और चीन के खिलाफ इस्तेमाल हो सकते हैं। भारत जैसे देश भी इस खेल में अपनी कूटनीति से संतुलन बनाए हुए हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री के कनाडा दौरे के बाद देखा गया।
तकनीक के सहारे: इस बीच, अमेरिका की इस युद्ध में आगे क्या भूमिका रहती है, इस पर भी दुनिया की निगाह है। वहीं, पूतिन ने कहा है कि वह ईरान और इजरायल के बीच मध्यस्थता करने के इच्छुक हैं। इतना तो तय है कि अगले कुछ दिन इस संघर्ष की दिशा तय करेंगे। पर यह किस ओर बढ़ेगा, यह इजरायल और अमेरिका की रणनीति पर निर्भर करेगा। निश्चित रूप से यह विश्व शांति के लिए खतरा है।
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