नवरात्र को सर्वाधिक पवित्र माना गया है। जिस प्रकार दिन-रात में ब्रह्मबेला सर्वात्तम होती है, उसी प्रकार नवरात्र का समय भी सर्वाेत्तम कहा गया है। कारण यह है कि नवरात्र में देवी मां दुर्गा की उपासना की जाती है, जो प्रतीक है उन अच्छाइयों की, जो बुराइयों का वध कर देती हैं। देवी ने अनेक असुरों को मारकर सृष्टि को यह संदेश दिया कि प्रत्येक असुर एक दुष्प्रवृत्ति का प्रतीक है, जिसका विनाश आवश्यक है।
धर्माचार्यों के अनुसार हर व्यक्ति अच्छाई और बुराई का पुतला होता है, इसलिए नवरात्र यह अवसर देता है कि हमें अपने भीतर की सद्प्रवृत्तियों को जगाकर दुष्प्रवृत्तियों को समूल नष्ट कर देना चाहिए। शुंभ-निशुंभ, मधु कैटभ आदि सिर्फ असुर नहीं है, ये हमारे भीतर स्थित आलस, लालच और घमंड जैसी प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं, जो अच्छाइयों को उबरने नहीं देते और हमें पतन की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं।
नवरात्र में अगर हम मां दुर्गा की प्रेरणा लेते हुए अपने भीतर की दुष्प्रवृत्तियों का वध कर दें, तो हमारा कल्याण निश्चित है। प्रत्येक व्यक्ति में दो प्रकार की वृत्तियां होती हैं, दैवी और आसुरी, हमारी दुष्प्रवृत्तियां आसुरी वृत्ति हैं, जिनसे निवृत्ति के लिए नवरात्रि में हमें प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। मां ने मानवता की रक्षा के लिए अनेक दैत्यों का मर्दन किया मधु-कैटभ, चिक्षुर, उदग्र, महाहनु, असिलोमा, बाष्कल, परिवारित, विडाल, महिषासुर, धूम्रलोचन, चंड-मुंड, शुंभ-निशुंभ, कालक, कालकेय तथा रक्तबीज जैसे महादैत्यों का संहार किया।
महादैत्य रक्तबीज का संदर्भ आता है, दैत्य रक्तबीज के रक्त की हर बूंद से एक दैत्य पैदा हो जाता था। कहा जाता है कि जब सज्जन लोग जरूरत से ज्यादा सरल हो जाते हैं अथवा अत्याचार को देखते हुए मौन हो जाऐं तो समाज में दुष्ट लोगों की वृद्धि रक्तबीज की भांति होने लगती है। शुभ व निशुंभ भगवती दुर्गा के रूप-लावण्य पर मोहित हो गए थे। उनके वध का प्रतीकार्थ यह है कि व्यक्ति भले ही कितना बलशाली हो जाए, लेकिन कामासक्त होने पर दुर्गति को प्राप्त होता है। महादैत्य महिषासुर का भी मां काली ने मर्दन किया और वे महिषासुरमर्दिनी कहलाई। इस प्रसंग में महिषासुर भैंसा, सिंह, पुरुष, हाथी तथा पुनः भैंसे का छद्मरूप धारण कर लेता था। इस कथा में भाव यह है कि पाखंडी व्यक्ति कितना ही प्रपंच करे, किंतु यह उसके काम नहीं आता। अंततः दैवी सत्ता उसका संहार करके ही दम लेती हैं, इस तरह समस्त दुर्गा चरित्र अनेकानेक शिक्षा-प्रसंगों से भरा पड़ा है। बस जरूरत है, तो इसे समझने की, जो व्यक्ति इसके रहस्य को समझ लेता है, वह व्यक्ति जीवन में कभी अवनति को प्राप्त नहीं होता। दैवी सत्ता हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है, बस उसे नवरात्र काल में जगाना है और अपने भीतर बैठे असुरों का विनाश करना है।
धर्माचार्यों के अनुसार हर व्यक्ति अच्छाई और बुराई का पुतला होता है, इसलिए नवरात्र यह अवसर देता है कि हमें अपने भीतर की सद्प्रवृत्तियों को जगाकर दुष्प्रवृत्तियों को समूल नष्ट कर देना चाहिए। शुंभ-निशुंभ, मधु कैटभ आदि सिर्फ असुर नहीं है, ये हमारे भीतर स्थित आलस, लालच और घमंड जैसी प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं, जो अच्छाइयों को उबरने नहीं देते और हमें पतन की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं।
नवरात्र में अगर हम मां दुर्गा की प्रेरणा लेते हुए अपने भीतर की दुष्प्रवृत्तियों का वध कर दें, तो हमारा कल्याण निश्चित है। प्रत्येक व्यक्ति में दो प्रकार की वृत्तियां होती हैं, दैवी और आसुरी, हमारी दुष्प्रवृत्तियां आसुरी वृत्ति हैं, जिनसे निवृत्ति के लिए नवरात्रि में हमें प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। मां ने मानवता की रक्षा के लिए अनेक दैत्यों का मर्दन किया मधु-कैटभ, चिक्षुर, उदग्र, महाहनु, असिलोमा, बाष्कल, परिवारित, विडाल, महिषासुर, धूम्रलोचन, चंड-मुंड, शुंभ-निशुंभ, कालक, कालकेय तथा रक्तबीज जैसे महादैत्यों का संहार किया।
महादैत्य रक्तबीज का संदर्भ आता है, दैत्य रक्तबीज के रक्त की हर बूंद से एक दैत्य पैदा हो जाता था। कहा जाता है कि जब सज्जन लोग जरूरत से ज्यादा सरल हो जाते हैं अथवा अत्याचार को देखते हुए मौन हो जाऐं तो समाज में दुष्ट लोगों की वृद्धि रक्तबीज की भांति होने लगती है। शुभ व निशुंभ भगवती दुर्गा के रूप-लावण्य पर मोहित हो गए थे। उनके वध का प्रतीकार्थ यह है कि व्यक्ति भले ही कितना बलशाली हो जाए, लेकिन कामासक्त होने पर दुर्गति को प्राप्त होता है। महादैत्य महिषासुर का भी मां काली ने मर्दन किया और वे महिषासुरमर्दिनी कहलाई। इस प्रसंग में महिषासुर भैंसा, सिंह, पुरुष, हाथी तथा पुनः भैंसे का छद्मरूप धारण कर लेता था। इस कथा में भाव यह है कि पाखंडी व्यक्ति कितना ही प्रपंच करे, किंतु यह उसके काम नहीं आता। अंततः दैवी सत्ता उसका संहार करके ही दम लेती हैं, इस तरह समस्त दुर्गा चरित्र अनेकानेक शिक्षा-प्रसंगों से भरा पड़ा है। बस जरूरत है, तो इसे समझने की, जो व्यक्ति इसके रहस्य को समझ लेता है, वह व्यक्ति जीवन में कभी अवनति को प्राप्त नहीं होता। दैवी सत्ता हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है, बस उसे नवरात्र काल में जगाना है और अपने भीतर बैठे असुरों का विनाश करना है।