भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसद निशिकांत दुबे ने शनिवार को एक विवादास्पद बयान देते हुए कहा कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय देश में 'धार्मिक संघर्षों को भड़काने' के लिए जिम्मेदार है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि सर्वोच्च अदालत को कानून बनाने का अधिकार है, तो संसद को बंद कर देना चाहिए। दुबे ने आरोप लगाया कि शीर्ष अदालत का एकमात्र उद्देश्य है, 'मुझे चेहरा दिखाओ, मैं तुम्हें कानून दिखाऊंगा'। उनके अनुसार, सर्वोच्च अदालत अपनी सीमाओं से बाहर जा रही है और यदि हर मामले में सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़े, तो संसद और राज्य विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए।
कानून बनाने का अधिकार संसद का है
दुबे ने अनुच्छेद 377 का उदाहरण देते हुए कहा कि इसमें समलैंगिकता को एक बड़ा अपराध माना गया था। उन्होंने कहा कि ट्रंप प्रशासन ने स्पष्ट किया है कि इस दुनिया में केवल दो लिंग हैं, पुरुष और महिला। चाहे वह हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन या सिख हो, सभी का मानना है कि समलैंगिकता एक अपराध है। उन्होंने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अचानक इस मामले को समाप्त कर दिया। अनुच्छेद 141 के अनुसार, जो कानून बनते हैं, वे निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक लागू होते हैं। दुबे ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को सभी कानून बनाने का अधिकार है, जबकि शीर्ष अदालत केवल कानून की व्याख्या कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर सवाल
दुबे ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट नियुक्ति प्राधिकारी को निर्देश नहीं दे सकता। उन्होंने कहा कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं और संसद कानून बनाती है। यदि सुप्रीम कोर्ट संसद को निर्देश देने का प्रयास करता है, तो यह देश को अराजकता की ओर ले जाने का संकेत है। उन्होंने कहा कि संसद में इस पर विस्तृत चर्चा की जाएगी।
वक्फ (संशोधन) एक्ट 2025 पर सुनवाई
दुबे की यह टिप्पणी वक्फ (संशोधन) एक्ट 2025 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर चल रही सुनवाई के दौरान आई है। 17 अप्रैल को हुई सुनवाई में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया था कि वह किसी भी 'वक्फ-बाय-यूजर' प्रावधान को रद्द नहीं करेगा और बोर्ड में किसी भी गैर-मुस्लिम सदस्य को शामिल नहीं करेगा। यह आश्वासन तब आया जब शीर्ष अदालत ने कानून के कुछ हिस्सों पर रोक लगाने पर विचार करने की बात कही थी।
उपराष्ट्रपति की चिंता
भारत के राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-सीमा निर्धारित करने के हालिया निर्णय ने भी बहस को जन्म दिया है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस निर्णय पर असहमति जताई है। उन्होंने कहा कि भारत में ऐसी स्थिति नहीं हो सकती जहां न्यायपालिका राष्ट्रपति को निर्देश दे। संविधान के अनुच्छेद 142 को न्यायपालिका के लिए लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल बताया। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत न्यायपालिका का एकमात्र अधिकार कानून की व्याख्या करना है।
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