अनूपपुर, 9 अगस्त (Udaipur Kiran) । मांदर की थाप, दीवारों की रंगत, नृत्य की लय और जड़ी-बूटियों की खुशबू… यह सब आज भी जिंदा है, आदिवासी अपने पूर्वजों से मिली धरोहर को संजोये हुए हैं। यह लोग सिर्फ कलाकार या वैद्य नहीं, बल्कि विरासत के पहरेदार हैं। समय बदल रहा है, गांव बदल रहे हैं, लेकिन चंद लोगों के लिए बदलाव का मतलब अपनी पहचान खोना नहीं है। न तो अपनी रोजी के लिए कला कर रहे हैं, न ही बस नाम के लिए विरासत को बचाये रखे हुए हैं। इनका मकसद है कि आने वाली पीढ़ी को वही गीत, चित्र, औषधि और लोकनृत्य मिलें, जो इन्हें अपने बड़ों से मिले थे। कठिनाई यह है कि कला से पेट नहीं भरता, कई बार मजदूरी करनी पड़ती है। फिर भी, आने वाली पीढ़ी को अमानत सौंपने का जज्बा कम नहीं हुआ।
देशभर में पहचान बनाई गुदुम नृत्य
मध्य प्रदेश अनूपपुर जिले के आदिवासी बाहुल्य पुष्पराजगढ़ विकासखंड के ग्राम बीजापुरी नंबर 1 को गुदुम नृत्य ने राट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है। शिवप्रसाद धुर्वे को यह कला विरासत में मिली है। आंध्र प्रदेश सरकार एवं जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से ट्राइबल कल्चर रिसर्च एंड ट्रेनिंग मिशन के तहत आयोजित जनजाति नृत्य महोत्सव 2022 में देश के 14 राज्यों के जनजातीय नृत्य दलों ने जिले के ग्राम बीजापुरी नंबर एक के शिवप्रसाद धुर्वे का गुदुम बाजा नृत्य प्रथम स्थान प्राप्त किया था। नृत्य दल के मुखिया शिवप्रसाद धुर्वे इससे पहले भोपाल में 26 जनवरी को लाल परेड में प्रथम स्थान हासिल किया था। दिल्ली के लाल किला परेड मैदान में बीजापुरी के कलाकारों ने वर्ष 2012 में गणतंत्र दिवस समारोह में मध्यप्रदेश नृत्य दल टीम का हिस्सा बनकर प्रथम स्थान प्राप्त कर गौरव हासिल किया था।
प्रधानमंत्री के समक्ष दे चुका प्रस्तुति
भोपाल के जंबूरी मैदान में आयोजित जनजातीय गौरव दिवस के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 नवंबर 2021 में के आगवन में शामिल हुआ था। नृत्य दल में लक्ष्मीकान्त मार्को, शिवप्रसाद, उमेश मसराम,वीर बहादुर धुर्वे, लामू लाल धुर्वे, श्रीचंद मार्को, ईश्वर मरावी, राजकुमार मसराम, चरण लाल धुर्वे, मीरा मार्को, धनेश्वर,प्रहलाद, फगुआ,भीम,मुनि लाल,कोदु लाल,अनिल एवं अन्य साथी शामिल रहे।
नृत्य में गुदुम बाजा, टिमकी
गुदुम बाजा नृत्य में गुदुम बाजा, टिमकी, ढफ, मंजीरा और शहनाई जैसे वाद्य यंत्रों के साथ किया जाता है। इसमें हस्त-पद संचालन के माध्यम से विभिन्न नृत्य मुद्राएं और पिरामिड बनाते हैं। उसी तरह सैला नृत्य भी किया जाएगा। यह नृत्य शरद ऋतु की चांदनी रातों में किया जाता है, चूंकि, नर्तकों के हाथों में सवा हाथ के डंडे होते हैं, इसलिए इसका नाम सैला नृत्य है। यह गोंड जनजाति का लोकप्रिय नृत्य है।
मांदर की थाप और लोकगायन की परंपरा
30 साल से लोकगायन कर रहे राम सिंह मरावी शैला, करमा, बिरहा, झूमरहा, उचाटा, लहकी जैसे गीतों में माहिर हैं। मांदर, ढोलक और तिमकी की थाप पर उनकी 10 लोगों की टीम गांव-गांव प्रस्तुति देती है। पांच साल की उम्र में ढोलक पकड़ी थी, बड़े दादा बाबूलाल से सीखा। अब स्कूलों में बच्चों को सिखाते हैं, ताकि मांदर की गूंज अगली पीढ़ी तक पहुंचे। शैला, करमा, बिरहा नृत्य भी गांव-गांव सिखाते हैं।
काष्ठ शिल्प, कौमिक कला के महारथी
बीजापुरी पुष्पराजगढ़ के दलपत सिंह धुर्वे ने पिता फुंदी लाल सिंह से कौमिक कला सीखी। यह आदिवासी गायन, वादन, अभिनय और हास्य संवाद का संगम है। सरकार द्वारा बने वर्कशॉप में 30-35 टीमों को ट्रेनिंग देते हैं। नृत्य और काष्ठशिल्प में भी माहिर हैं। कौमिक कला अब बहुत कम होती जा रही है, फिर भी वे आने वाली पीढ़ी को इस कला को सिखा रहे हैं।
औषधि ज्ञान विरासत
जड़ी-बूटियों और औषधियों का ऐसा ज्ञान, जो किताबों में नहीं बल्कि यादों में था। यही ठूनू दादा की पहचान थी। अब उनके परिवार के सदस्य सूरज मरकाम इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। दादा की तरह वे भी बीमारों की मदद करते हैं।
कलाकार का समान दर्द, समान जज्बा
सभी कलाकार अपनी-अपनी विधा में माहिर हैं, लेकिन एक बात सबमें समान है। कहते हैं, कला और ज्ञान है, लेकिन रोजी-रोटी के लिए मजदूरी करनी पड़ती है। अगर यही कला किसी बड़े शहर में होती तो इज्जत भी मिलती और रोजगार भी, लेकिन कई बार आर्थिक संकट बड़ा सामने आ जाता है।
पाटनगढ़ के हर घर में गोड़ी कला
पाटनगढ़ के जनगढ़ सिंह श्याम ने गोंड चित्रकला को देश-दुनिया तक पहुंचाया। आज उनकी विरासत को 300 से ज्यादा कलाकार आगे बढ़ा रहे हैं। उम्मेद सिंह पट्टा की कलाकृति सहकारी समिति में 79 पंजीकृत कलाकार हैं। गांव के 180 परिवारों में लगभग हर घर में कोई न कोई गोड़ी आर्ट में माहिर है। आसपास के गांव भी इससे प्रेरित हुए हैं। इतना ही नहीं, आसपास के गांव वाले भी आर्ट सीख चुके हैं।
(Udaipur Kiran) / राजेश शुक्ला
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